जीवन के राह पर यूं ही चल पड़ी थी जो ये बंजारन,
न राह का पता था... न ही सफर का कारण,
पर ये राह आसान न थी...
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कभी शोर ने... तो कभी शोर में छिपे सन्नाटे ने सताया,
कुछ दूर चली ही थी की, पितृसत्ता के हितधारक खडे़ हुए थे,
सुनसान उस राह में... इक साथी ने हाथ तो बढ़ाया ,
पर अफसोस समाज के जंजीरों से ... उसके पैर बंधे पडे़ थे!!!
ऐश्वर्या सामल