Ram Bahal Chaudhary,Basti
Share

खान अब्दुल गफ्फार खान (सरहदी गाँधी) की याद में - मुख्तार खान

  • by: news desk
  • 09 February, 2023
खान अब्दुल गफ्फार खान (सरहदी गाँधी) की याद में - मुख्तार खान

बात उन दिनों की है, महात्मा गाँधी को  दक्षिण अफ्रीका से लौटे अभी चंद वर्ष ही बीते थे। जल्द हीउनके द्वारा चलाये जा रहे अहिंसक, सत्यग्रह की चर्चा चारो तरफ होने लगी थी। सैकड़ों मील दूर अफगानिस्तान की सरहद पर पशतून पठान कबीले तक भी यह बात पहुंची। इसी कबीले के एक पढे

लिखे नौजवान को सत्य, अहिंसा पर आधारित गाँधी का फल्सफ़ा ऐसा भाया कि उसने जनसेवा को ही अब अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। इस पठान के त्याग और बलिदान को देख कर ही लोगों ने आगे चलकर उन्हें ‘सरहदी गाँधी’ का खिताब दिया। इस जियाले नौजवान का पूरा नाम था 'खान अब्दुल गफ्फार खान'। लोग उन्हें प्यार से बाचा खान या बादशाह खान के नाम से भी बुलाया करते। 


‘खान अब्दुल गफ्फार’ का जन्म सीमान्त प्रान्त में (वर्तमान पाकिस्तान) 6 फरवरी 1890 को हुआ था। पिता ‘बेहराम खान’ रुसूख़ वाले व्यक्ति थे। इन्हें मिशनरी स्कूल में पढ़ने भेजा गया । इसके बाद उच्च शिक्षा के लिये वे अलीगढ़ आये। ऊंची कद-काठी वाले बादशाह खान दर-असल फौज में अफसर

बनना चाहते थे। एक बार एक भारतीय अफसर को किसी अंग्रेज़ अधिकारी द्वारा अपमानित हुए देखा। अपना आत्मसम्मान खोकर उन्हें ब्रिटिश फौज की नौकरी करना भला अब क्योंकर गंवारा होता? उसी वक़्त उन्होंने ब्रिटिश फौज की नौकरी का ख्याल अपने दिल से हमेशा के लिये निकाल दिया।  बादशाह खान का जन्म सीमांत प्रांत के जिस पश्तून पठान कबीले में हुआ था।  वहाँ शिक्षा और आधुनिक जीवन मूल्यों का अभाव था। लोग आपस में कबीलों के नाम पर बटे हुए थे। 


हथियार और हिंसा का तो जैसे चोली दामन का साथ हुआ करता। खानदानी दुश्मनी निभाना,एक दूसरे से बदला लेने का चलन भी आम था। महिलाओं की स्थिति और भी दयनीय थी। इन कठिन परिस्थितियों में बादशाह खान ने इन पठानों के बीच जन जागृति लाने का निश्चय किया। अभी उनकी उम्र केवल 20 वर्ष की ही थी। 


सब से पहले उन्होंने 1910 में लडकियों की शिक्षा के लिये एक स्कूल खोला। इस के बाद 'अफगान रिफॉर्म सोसाइटी' नामक संस्था बनाई। धीरे धीरे स्थानीय लोग इनसे जुडने लगे। अपनी क़ौम की दुर्दशा देख कर उन्हें बडा दुख होता। वे जानते थे कि यदि एक बार वे इन पठानों का दिल जीतने में कामियाब हो गये तो फिर बदलाव से इन्हें कोई नहीं रोक सकता। वे एक जत्था बनाकर गावँ-गावँ घूमकर लोगों को इकट्ठा करते। अपने भाषणों में वे अक्सर बल देकर कहते "हमें अपने जीवन का आराम, समय और पैसा अपनी क़ौम की भलाई के लिये खर्च करना चाहिए। संसार में उन्हीं क़ौमों ने तरक़्क़ी की जिन्होने अपना स्वार्थ त्याग कर औरों के दुख दर्द को अपना जाना, एक जुट होकर सामजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। इन्सान और हैवान में यही तो एक अन्तर है।  



हैवान केवल खुद के लिये जीता है। को अपना जीवन सुधारने के लिये सामूहिक प्रयास करने चाहिए। केवल स्वयं की उन्नति के बारे में प्रयास करते रहना तो पशु प्रवृत्ति है। इस तरह अपने असरदार भाषणों से लोगों को औरों की खातिर जीने के लिए प्रेरित करते। 1929 में उन्होने खुदाई खिदमतगार नाम से एक संस्था बनाई। खुदाई खिदमतगार का मतलब हुआ खुदा की खिदमत करने वाले, लेकिन खुदा को भला किसी की खिदमत की क्या ज़रूरत?  खुदा के बन्दों की सेवा करना ही  खुदा की सेवा करना। 


इस संस्था के दो अहम लक्ष्य थे  सेवा कार्य और दूसरे ब्रिटिश सरकार की गुलामी से आज़ादी। खुदाई खिदमतगारों से जुड़ने की शर्तें थीं जीवन भर अहिंसा के मार्ग पर चलना और  हिंसा से दूर रहना, अमीर हो या गरीब दिन में दो घन्टे श्रम करना, अपने जीवन में सादगी और सच्चाई का पालन करना, आपस में किसी तरह का भेदभाव न रखना और अपनी पहचान के तौर पर लाल कुरती पहनना।



 गाँव गाँव जाकर बादशाह खान पठानों को अंग्रेज़ों की गुलामी का एहसास भी  करवाते जाते। वे साथ ही शिक्षा और आधूनिक जीवन मूल्यों से भी उन्हें रुबरू करवाते जाते। बाहर से कठोर लेकिन भीतर से अति कोमल पठानों के दिल पर बादशाह खान की बातों का करिश्माई असर दिखाई देने लगा। कल तक यही पठान बात पर हवा में हथियार लहराया करते। आज वे ही लोग अंग्रेजों के ज़ुल्म व सितम के बावजूद शांति से मोर्चे पर अडिग रहा करते। देखते ही देखते कुछ ही वर्षों में सैकड़ों खुदाई खिदमतगार ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एकत्र होने लगे। खैबर पख्तून में खुदाई खिदमतगारों की एक ऐसी सेना तैयार हो गयी। ऐसी सेना जो सच्चाई और अहिंसा के मार्ग पर चलकर अपनी जान तक देने तक को तैयार रहती।  इन खुदाई खिदमतगारों के जज़्बे को देख कर ब्रिटिश कहा करते "हिंसा पर उतारु पठानो को रोका जा सकता है लेकिन इन सत्याग्रहियों से निपटना अधिक मुश्किल है।"  


बादशाह खान के आन्दोलन को कुचलने के लिये ब्रिटिश सरकार ने दमन का मार्ग चुना। अब बार-बार उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया जाता। कड़ाके की सर्द रातों में में फर्श पर सुलाया जाता। बादशाह खान जिस भी जेल में कैदी बन कर जाते यहाँ उनके नाप के कपडे मिलना मुश्किल हो जाता। अक्सर  उन्हीं तंग कपड़ों में उन्होंने लंबी लंबी सज़ाएं काटी। स्वतंत्रता के आन्दोलन में बादशाह खान एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी रहे जिन्होंने जिनके जीवन का बेश्तर हिस्सा क़ैद में गुज़ारा। जलसे या मोर्चे में बादशाह खान के होने मात्र से सरकारें खौफ़ खाया करती थीं । ब्रिटिश हुकूमत लगातार उनकी मूमेंट पर नज़र बनाये रखती। इसी लिये उन्हें अंग्रेज़ सरकार ने पूरे15 वर्षों तक जेल में बंदी बनाये रखा। स्वतन्त्रता के बाद भी उन्हें राहत नहीं मिली विभाजन के बाद  पाकिस्तान सरकार को इस गांधीवादी नेता का स्वतंत्र रहना रास ना आया। यहाँ की सरकारों ने भी उन्हें 15 वर्षों तक जेलों, में सख्त यात्नायें सहनी पड़ीं, उनके साथियों को भी खूब प्रताड़ित किया गया। इसके बावजूद बादशाह खान और उनके साथियों ने कभी हिंसा का मार्ग को नहीं अपनाया। 



कुछ वर्षों बाद बादशाह खान की संस्था खुदाई खिदमतगार और काँग्रेस का विलय हुआ। यहाँ भी अपने सेवा भाव अहिंसा के चलते खुदाई खिदमतगारों ने अपनी एक अलग पहचान बनाई थी। कांग्रेस  से जुड़ने के बाद भी वे एक सिपाही की तरह ही रहे। 1934 के वर्धा अधिवेशन में खान अब्दुल गफ्फार खान को कांग्रेस की अध्यक्षता का प्रस्ताव भी दिया दिया गया। लेकिन बादशाह खान ने  बड़ी विनम्रता से यह कह कर प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया कि "मैं एक सिपाही हूं और सिपाही ही बने रहना चाहता हूं।



“एक बार गांधी जी से बात करते हुए अहिंसा के विषय पर चर्चा होने लगी। बादशाह खान ने गांधी जी से पूछा "हम पठानों को अहिंसा का सबक सीखे कुछ ही वर्ष हुए हैं। जबकि आप कई वर्षों से यहां के लोगों को अहिंसा को अपनाने की सीख देते रहे हैं। इसके बावजूद 'भारत छोड़ो आंदोलन'  के दौरान इलाके में कई स्थानों पर हिंसक घटनाएं हुईं । वहीं, इसकी तुलना में सरहद के पठान अंग्रेज़ों के ज़ुल्म सहते रहे लेकिन उन्होंने किसी भी सूरत में हथियार नहीं उठाए जबकि बड़ी आसानी से उन्हें भी हथियार उप्लब्ध थे।" सवाल सुनकर गांधी मन ही मन मुस्कुराए और कहा, "बादशाह खान……! अहिंसा के मार्ग पर चलना बहादुरों का काम है, बुज़दिलों का नहीं, पठान औरों से अधिक बहादुर कौम है, यह इस बात का सबूत है।" महात्मा गांधी की तरह बादशाह खान नहीं चाहते थे कि धर्म के नाम पर देश को बाटा जाये।  



वे अंत तक लगातार कोशिश करते रहे कि भारत अखंड और एक बना रहे। लेकिन आखिर कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी। धर्म के नाम पर देश के विभाजन से गांधी जितने आहत हुए सरहदी गांधी भी उतने ही विचलित और दुखी थे। बुझे मन से वे अक्सर कहा करते "भारत विभाजन का निर्णय लेते समय हम पठानों के बारे में किसी ने विचार नहीं किया।  हमें खुदा के रहमों करम पर छोड़ दिया गया।बादशाह खान चाहते तो विभाजन के बाद वे भारत में शान से रह सकते थे लेकिन उन्हें अपने पठान भाइयों की फिक्र थी। पाकिस्तान बनने के बाद भी खान अब्दुल गफ्फार खान ने अपना संघर्ष जारी रखा। वे पश्तून पठानों के अधिकारों के लिए लगातार वहाँ की सरकारो से जूझते रहे। यहां तक कि पाकिस्तान सरकार ने उन्हें भारत का एजेंट तक करार दे दिया। 



उन्हें वर्षों तक जेल में यातनाएं दी जाती रही। 30 वर्षों तक जेल में रहने से उनकी सेहत अब जवाब देने लगी थी। बादशाह खान ने एक लंबी उम्र पायी। जब तक सक्रिय रहे देश और समाज के लिये कार्य करते रहे। 1987 को भारत सरकार ने उन्हें भारत रत्न पृस्कार से स्मानित किया । इसके एक वर्ष बाद ही 20 जनवरी 1988 को बादशाह खान ने 98 वर्ष की आयु में एक संघर्ष पूर्ण जी कर इस दुनिया से विदा ली। सरहदी गाँधी जैसे महान व्यक्तित्व से अवगत होना यानी साझा संस्कृति और इतिहास को याद रखना है। हिन्दू मुस्लिम एकता और देश की अखंडता के लिये मर मिटने वाले सरहदी गाँधी का जीवन हमारे भीतर एक विश्वास पैदा करता है। हम गर्व के साथ कह सकते हैं कि बादशाह खान गंगा-जमुनी तहज़ीब के एक रोशन सितारे की तरह थे। बादशाह खान की इंसान दोस्ती और प्रेम को सरहद के दोनों तरफ याद रखा जाएगा।

      

     

मुख्तार खान  (9867210054)-  mukhtarmumbai@gmail.com

जनवादी लेखक संघ, महाराष्ट्र

(संदर्भ: खान अब्दुल गफ्फार खान की आत्मकथा से)



आप हमसे यहां भी जुड़ सकते हैं
TVL News

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें : https://www.facebook.com/TVLNews
चैनल सब्सक्राइब करें : https://www.youtube.com/TheViralLines
हमें ट्विटर पर फॉलो करें: https://twitter.com/theViralLines
ईमेल : thevirallines@gmail.com

स्टे कनेक्टेड

विज्ञापन